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इज़हार-ए-मोहब्बत

किस्मत ने ये कैसा खेल रचाया मेरा साथी उसे बनाया यादों के तकिये तले छुपती रातों को आहे भर्ती वो उसे कह दो, में उसके काबिल नहीं न-मंजूर करदे मेरी इज़हार-ए-मोहब्बत मिटा दे उस कलम की सियाही से लिखे हुए वो खत, जिनको खुद अपनी हाथों से दिया उसे आज वो हाथ कातिल-ए-मोहब्बत है आज उसने गुनाह किया है मोहब्बत से गद्दारी की है हमदम मेरे हमनशी, उसकी गलती की सजा उसको दो. भले ही मोहब्बत मे सजा-ए-मौत ही क्यों न नाम दो आज उस पाप से भरी कमीज को उतार फेको उस ज़ालिम के रक्त से गीली हुई उस लिफ़ास से नाते तोड़ दो जो सिर्फ तुम्हे दर्द ही देता उसके तक़दीर मे प्रीत नहीं लिखी है हो सके तो अपने उस हसीं हुस्न से उसकी छुअन को मिटा देना सीने मे दर्द तो होगा टीस सी होगी दिल में तुम्हारी मगर इश्क़ में सहना सिख़लो ये प्यार है कोई चोरी नहीं चाहे तो उस ज़ालिम का नामो निशाँ मिटा देना कुदरत का ये खेल है मेरे यार इसे ना चाहते हुए भी अपना लो न अपनाओगे तो टूट जाओगे टूटकर बिखर जाओगे पर वो हसीं दिन वापस लौट कर नहीं आएगा जब तुम उससे पहली बार मिले थे. जब दोनों ने क़ुबूल-ए-मोहब्बत की थी.

 
 
 

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